एक संत के निवास स्थान पर कस्बे का निर्माण करवाना, अपने हाथी के याद में मीनार का निर्माण करवाना और अपने राजकाल तक उस स्थान पर अपनी राजधानी स्थानांतरित कर लेना, कुछ ऐसी थी बादशाह अकबर की महिमा।
अपनी हालिया आगरा यात्रा के दौरान मैंने एक संपूर्ण दिन अकबर द्वारा स्थापित फतेहपुर सीकरी के लिए नियोजित करके रखा हुआ था। मैंने आगरा में शरण ली थी और दूसरे ही दिन सुबह-सुबह आगरा से फतेहपुर सीकरी को प्रस्थान किया।
जानकारी के लिए बता दूं कि फतेहपुर सीकरी मुग़ल काल का पहला सुनियोजित तरीके से निर्माण करवाया जाने वाला कस्बा था। फतेह मतलब “जीत” और पुर मतलब “शहर” और यहाँ पर कभी सीकरी नाम का गाँव हुआ करता था, इसी वजह से इसका नाम फतेहपुर सीकरी पड़ा।
यह लेख फतेहपुर सीकरी के लिए एक यात्रा निर्देशिका (ट्रैवल गाइड) है जो फतेहपुर सीकरी किले के अंदर स्थित हर इमारत के बारे में बताएगा और साथ ही यह भी बताएगा कि वहां क्या करना है, कैसे जाना है और कहां ठहरना है।
तो अपनी कमर कस लीजिए और चलिए मेरे साथ इस ऐतिहासिक स्थान की यात्रा पर।
मेरे दिमाग में एक सवाल टिक-टिक कर रहा था और शायद आप सभी के मस्तिष्क में भी यही घूम रहा होगा कि ऐसा क्या था कि अकबर ने मात्र एक संत के रहने वाले स्थान पर इतना भव्य शहर का निर्माण करवा डाला?
शेख सलीम चिश्ती अकबर के शासनकाल में एक प्रसिद्ध सूफ़ी संत थे, जिनकी जादुई महिमा लोगों के जहन में व्याप्त थी। आगरा के निकट सीकरी (उस समय का नाम) नामक छोटे से गांव में वे रहते थे। दूसरी ओर मुग़ल बादशाह अकबर लगातार विजय होने के साथ अपने साम्राज्य का विस्तार करता जा रहा था।
इतिहास की पुस्तकों में बहुत बार पढ़ा और लोगों द्वारा सुना है कि अकबर की कोई संतान नहीं हो रही थी। इसके चलते वो अंदर ही अंदर परेशान रहने लगा।
अंततः शेख सलीम चिश्ती के आशीर्वाद से उसकी संतान प्राप्ति की मुराद पूरी हुई और इसी संत के नाम पर उसने अपने पुत्र का नाम सलीम रखा जो बाद में जहांगीर के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
अपनी झोली ख़ुशियों से भरा पाकर अकबर ने सीकरी जैसे मामूली गांव पर मेहरबानी की और उसको एक चमचमाते शहर में परिवर्तित कर दिया। इतना ही नहीं, उस महान संत की दरगाह भी बड़े ही अदब के साथ बनवाया।
जैसे तैसे बस में एक छोटी सी यात्रा करके मैं आगरा से फतेहपुर सीकरी बस स्टेशन पहुंचा। उतरते ही बस कंडक्टर से बुलंद दरवाज़े का मार्ग पूछा और उन्होंने पीछे का एक संकरा चढ़ाई वाले रास्ते की ओर इशारा किया।
“अरे वाह, ये बुलंद दरवाजा तो बस स्टेशन के बिल्कुल ऊपर है” मैंने दरवाज़े की ओर देख कर बोला।
वैसे बिना मांगे उन्होंने एक और सुझाव दिया कि कोई गाइड मत लीजिएगा और घूमते समय अपने समान का खास ख्याल रखिएगा। वैसे तो मैंने इस बारे में पहले ही रिसर्च के दौरान कई लेखों में पढ़ रखा था कि लोग यहां पर ज़बरदस्ती गाइड लेने का दबाव डालते है और एक बार तो एक विदेशी पर्यटक पर हमला तक कर दिया था। इतना सब पढ़ने के बाद कंडक्टर साहब की सलाह ने मन में एक भय की स्थिति उत्पन्न कर दी।
एक छोटी सी चढ़ाई और गगनचुंबी, आलीशान और विराट बुलंद दरवाजा मेरी आंखों के सामने था। इतना विशाल की मुझे उसकी चोटी को देखने के लिए अपनी गर्दन को उठाना पड़ा – उफ़्फ़ ये आलसपन। ना कोई पुलिसकर्मी ना ही कोई पर्यटन विभाग का बोर्ड, बस बकरी और कुछ पालतू पशु सीढ़ियों पर और उसके आसपास भटक रहे थे।
जिस चीज़ ने मुझे सबसे ज्यादा अचंभित किया वो था सीढ़ियों पर बैठे लोगों का हुजूम। एक वक्त के लिए लगा कि सब लोग पर्यटक है पर तभी किसी साहब ने मेरे पीछे से दस्तक दी और लगे बुलंद दरवाजा के इतिहास का बखान करने। मैंने बड़े ही तहजीब से बोला, “जनाब! थोड़ा सांस तो लीजिए। आप तो बिना कुछ पूछे ही सब कुछ बताए चले जा रहे हैं।”
जवाब मिला, “मैं ट्रस्ट की तरफ से हूं, आपको पचास रुपए में पूरी जानकारी दूंगा।” मैं बोला, “मैं सब पढ़ के आया हूं, आपको तकलीफ उठाने की आवश्यकता नहीं है।” जनाब बोले, “अंदर कोई बोर्ड थोड़े लगा है, जो आप पढ़ लेंगे, अच्छा चलिए दो लोग का बीस रुपए ही दे दीजिएगा।”
वो व्यक्ति कुछ दूर पीछे पीछे सीढ़ियों तक आया, फिर मैंने हाथ जोड़कर विनम्रता से मना किया तब जाकर वो माना। चार सीढ़ियां चढ़ने के बाद एक और साहब आए और बोलने लगे कि ये इमारत इन्होंने बनवाया, इसलिए बनवाया और भी बहुत कुछ।
मैंने कहा, “अच्छा बताइए की इसका निर्माण कब हुआ?” वो बोले, “1610 में।” इतना सुनने के बाद मैंने हाथ जोड़ते बोला, “जनाब। आप ग़लत फरमा रहे हैं। “इतने में विपिन बोला, “भईया, हम लोग यात्रा लेखक हैं और अगर आप ग़लत बताएंगे तो हम वही लिखेंगे। इससे बेहतर होगा आप हमे अकेले घूमने दीजिए।” इतना सुनकर उसने अपने पैर पीछे कर लिए।
सलाह: बुलंद दरवाज़े के आसपास कुछ लोग खुद को ट्रस्ट का गाइड बताकर खुद ही रटी-रटाई बाते बोलने लगेंगे और कुछ पैसों के बदले सम्पूर्ण जानकारी देने को बोलेंगे। कुछ तो आक्रामक रुख भी अख्तियार करेंगे। पर आप शांत भाव से मना करके, सभी बातों को अनसुना करते हुए ऊपर बढ़ते रहिएगा।
वाह! ये है प्रवेश द्वार। जिसके नीचे खड़े होकर मुझे एक चींटी की भांति प्रतीत हो रहा था। मुंह तो खुला का खुला रह गया और शब्द तो जैसे गले में फँस से गए थे। नज़रे विपरीत दिशा में दौड़ाई तो सारा शहर ही अपने नज़ारे की प्रस्तुति दे रहा था।
यूं ही नहीं इसे विश्व का सबसे बड़ा प्रवेश द्वार होने की ख्याति प्राप्त है।
निर्माण करवाने के पीछे का कारण अकबर के गुजरात पर फतह करना था। गुजरात जीत के स्मृति चिन्ह के रूप में बादशाह अकबर ने इसका निर्माण सन् 1602 में करवाया। लंबाई और चौड़ाई के लिहाज से यह 54 मीटर लंबा और 35 मीटर चौड़ा है और साथ ही ऊपर पहुचनें के लिए 42 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती है।
लाल बलुआ पत्थर से निर्मित इस इमारत को सजाने संवारने में सफेद संगमरमर का प्रयोग किया गया है। यह मुग़ल वास्तुकला का एक बेहतरीन नमूना है। यह अकबर के सभी धर्मों की एकता को भी दर्शाता है।
जब मैंने गौर से देखा तो पाया कि ऊपर बनी छतरियां राजपूत शैली में निर्मित है। किनारों पर फारसी में कुरान को आयतें भी उकेरी गईं हैं और दरवाज़े के ऊपरी भाग पर प्रभु यीशु से संबंधित कुछ पंक्तियां लिखी है, जो इस प्रकार हैं, “मरियम के पुत्र यीशु ने कहा: यह संसार एक पुल के समान है, इसपर से गुज़रो लेकिन इसपर अपना घर मत बनाओ। जो एक दिन कि आशा रखता है वो चिरकाल तक आशा रख सकता है, जबकि संसार कुछ ही समय के लिए ही टिकता है, इसलिए अपना समय प्रार्थना में व्यतीत करो, उसके सिवा सब अदृश्य है।”
अर्थात् मनुष्य का जीवन अस्थाई है, हमे एक दिन संसार छोड़ कर जाना है, अतः इस संसार को अपना स्थाई निवास ना समझें और अपना समय ईश्वर की भक्ति में लगा दें।
वहीं बगल में जूते जमा कर के मैं अंदर बढ़ा तो सबसे पहले मेरी नज़रों ने हर तरफ लाल इमारतों के बीच एक सफेद संगमरमर से निर्मित इमारत पर पड़ी। जैसा चित्रो में देखा था ठीक वैसा ही – यह शेख़ सलीम चिश्ती की कब्रगाह है।
इसी संत की कृपा से बादशाह अकबर को पुत्र की प्राप्ति हुई थी। यह एक महान धार्मिक गुरु थे जिनकी मृत्यु के बाद अकबर ने उनकी दरगाह यहां बनवाई जहां आज भी हजारों लोग मन्नत का धागा बांधते हैं।
दरगाह के ठीक सामने हौज टैंक या पवित्र जल स्थित है। हाथ धोने के पश्चात मैंने अंदर प्रवेश किया और दर्शन करके अंदर एक परिक्रमा की और बेहतरीन नक्काशी को गौर से देखा।
दरगाह के मध्य में सलीम चिश्ती की कब्र है और चारों ओर जालीदार संगमरमर की नक्काशी की गई है। देखने में यह मुझे अजमेर के ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह की याद दिलाता है।
बाहर आया तो कुछ लोग कव्वाली गा रहे थे जो उस स्थान की हवा में सूफ़ी संगीत की धुनों में लीन कर रहा था। मैंने भी उनके साथ बैठकर कुछ पंक्तियां गाई। दरगाह के दाहिनी तरफ कुछ और भी कब्रगाह हैं जो की सलीम चिश्ती साहब के परिवार वालों की है। बगल मे स्थित जामी मस्जिद था जिसके परिसर ने बैठकर कुछ लोग धूप का आनंद ले रहे थे।
वहां से वापस आकर मैंने अपने जूते हाथ में लिए और फिर से बुलंद दरवाज़े के प्रवेश के दाहिनी ओर स्थित एक अन्य द्वार जिसको “बादशाही दरवाजा” बोलते है, से बाहर निकल गया। वैसे यह दरवाजा उस समय में बादशाह अकबर द्वारा आने जाने के लिए प्रयोग किया जाता था।
बादशाह दरवाज़े के निकास द्वार पर खड़े एक सुरक्षाकर्मी से किले में प्रवेश के बारे में पूछने पर उन्होंने सामने की तरफ अपनी उँगली उठा दी। मैं उस ओर चल पड़ा। कुछ कदम चलने पर कुछ हलचल दिखी। प्रतीत होता है कि यहीं से टिकट लेकर अंदर प्रवेश करना है।
जब तक विपिन ऑनलाइन टिकट बुक करते तब तक मैं पत्थर पर अंकित महल की संरचना का अवलोकन करने लगा। तभी एक बुजुर्ग दादाजी पास आए और अपनी शर्ट की जेब पर लगा ए एस आई ( भारतीय पुरातत्व विभाग) का बिल्ला दिखाकर बोले, “मैं ए एस आई का ऑफिशियल गाइड हूं, आपको ₹450 में पूरे किले का भ्रमण करा दूंगा।” मेरे हाथ जोड़कर विनम्रता पूर्वक माना करने पर वो पुनः बोले, “अच्छा ₹200 रुपए ही दे देना बेटा।” मैं फिर से मना कर के आगे बढ़ गया।
सामने दो दिशा निर्देश दिखे, एक “अस्तबल “ और दूसरा “जोधा बाई का महल”। हमने महल देखने में ज्यादा रुचि दिखाई। तभी साथी यात्री विपिन बोले कि कुछ देर विश्राम करते हैं। मैं भी राजी हो गया। सुस्ताने और पानी पीने के बाद पदयात्रा आरंभ हुई और पहला पड़ाव जोधा बाई का महल था।
महल के प्रवेश द्वार पर अंकित शिलालेख के अनुसार इसका निर्माण संभवतः 1570-1574 के मध्य हुआ था और यह अकबर का मुख्य हरम था, को गलती से जोधा बाई महल के नाम से जाना जाता है। इस बात ने मुझे सोच मे डाल दिया। खैर जो भी हो, मैंने अंदर प्रवेश किया और बीच मे आगन में एक गुड़हल का पौधा देखा। किसी ने बोला कि यहां तुलसी जी का पौधा हुआ करता था।
तीनों तरफ से घिरा हुआ महल में चौकोर आंगन के साथ-साथ कुछ कमरे हैं। मेरी नज़र पश्चिम की ओर एक बरामदे पर पड़ी जो स्तंभों पर आधारित था। इस कमरे के दीवारों पर छोटी दराजें थी जहां भगवान की मूर्तियां होती थीं और बीच में एक चबूतरे पर मुख्य देवता की प्रतिमा होती थी।
राजपूत शैली में सम्पूर्ण महल निर्मित है। इससे पता चलता है कि अकबर ने जोधा बाई को अपने अनुसार जीवन जीने और पूजा पाठ करने की आजादी दे रखी थी। जोधा बाई शायद यहां अपनी दासियों के साथ निवास करती थीं। बाईं तरफ एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म चल रही थी जिसमे किसी पर्यटक ने रुचि नहीं दिखाई पर मैंने कुछ समय देखना जरूरी समझा। पूरे महल की जानकारी को फिल्म में दर्शाया गया है। कुछ समय देखने के बाद हम वापस बाहर निकले।
आगे बढ़ते ही एक जगह सुनाई पड़ा, “ये जोधा बाई की रसोई है।” हमने कुछ खास रुचि नहीं दिखाई और आगे बाईं ओर अग्रसर हुए। आगे जाते ही एक विशाल मैदान जैसा स्थान दिखाई दिया और मैदान में प्रवेश करने वाले स्थान पर एक छोटा किन्तु आकर्षक इमारत खड़ी थी। विपिन नीचे फोटोग्राफी करने उतर गए और मैं शिलालेख पढ़ने लगा।
दो शिलालेख जो दर्शा रहे थे कि यह हाथी, घोड़ों और उंटों के रहने की जगह थी। तीनों किनारों पर उनके बांधने और भोजन करने की व्यवस्था थी। हमने अंदर प्रवेश किया तो एक बड़ा हॉल जैसा स्थान मिला जो शायद बारिश और खराब मौसम से जानवरों को बचाने के लिए प्रयोग किया जाता होगा या पशुओं की देखभाल में लगे कर्मियों के लिए होगा।
बीरबल का महल, हरमसरा का ही एक हिस्सा था। बताया जाता है कि अकबर की अन्य दो बेगम रुकैया बेगम और सलीमा सुल्ताना बेगम यहां निवास करती थीं।
दोमंजिला इस इमारत के निचले हिस्से पर चार कमरे और उपरी हिस्से पर दो कमरे है। महीन नक्काशी और ऊपरी भाग पर मेहराबों की संरचना मनमोहक लगती है। ठंडी हवा चलने से मैं कांप उठा और झट से अपने कानों को ढका। यहां से मुझे हरे हरे सरसों के खेत दिखे जो लहलहा रहे थे।
वैसे यह इमारत जोधा बाई की रसोई के बिल्कुल करीब है।
आप जोधा बाई महल के बाद इसको भी पहले घूम सकते है। हम वापस आए और विपिन ने पूछा फोटो खींचते हुए पूछा, ” ये क्या है?” ” मरियम का घर।” मैं बोला। यह जगह चित्रों से भरी होने के कारण सुनहरे मकान के नाम से भी जाना जाता है।
लेकिन कुछ चीज़ें मुझे भा गई, जैसे श्री राम, हनुमान के साथ-साथ हंसों के जोड़ो और हाथी घोड़ों का उत्कीर्ण। दीवारों पर भी अत्यंत भाने वाली चित्रकारी की गई है। कुछ जगह तो फारसी भाषा में छंद भी अंकित है।
इसी का तो मैं इंतज़ार कर रहा था, जिसने पहले ही इंटरनेट के चित्रों द्वारा मुझे उत्सुक कर दिया था। पंचमहल अर्थात् पांच मंजिल का महल। पूरे महल कुल 176 स्तंभों पर आधारित है जिसमे पहली से पांचवीं मंजिल तक क्रमशः 84, 56, 20, 12, 4 स्तंभ हैं जो नीचे से ऊपर तक देखने में अवरोही क्रम में प्रतीत होते हैं। इसको बादगीर भी बोलते है।
मैं पहली मंजिल के नीचे गया और स्तंभों के क्रमबद्ध संयोजन को देखकर अवाक रह गया। यह महल मनोरंजन और कुछ अनमोल समय बिताने के लिए प्रयोग किया जाता था। बादशाह अकबर यहाँ शाम को ठंडी हवा और रात में चांदनी का आंनद लेता था। इसकी तीसरी मंजिल हरम से जुड़ी हुई है जहां से आम लोगों की नज़रों से बचकर बेगमें और शाही महिलाएं यहां ऊपर आती थीं। इसके ठीक सामने एक तालाब है जिसके बारे में आगे बताऊंगा।
मुझे याद है स्कूल के दिनों में इतिहास की पुस्तकों में दीवान-ए-ख़ास और दीवान-ए-आम के बारे में पढ़ता था और मन में एक कल्पना बना लेता था कि ऐसा होता होगा, वैसा होता होगा। अब जाकर पता चला कि कैसी है असल में यह इमारत।
कुछ का कहना है कि यह न्याय का स्तंभ है, तो कुछ इसको इबादत खाना बोलते है। पर जैसा मैंने पढ़ा है यह अकबर द्वारा अपने वजीरों से खास बातचीत और फ़ैसले लेने के लिए प्रयोग किया जाता था।
अंदर प्रवेश करते ही, बीच में बेहद लुभावने कलाकृति से सुसज्जित स्तंभ दिखा और इसी स्तंभ के ठीक ऊपर अकबर अपनी गद्दी पर विराजमान होता था। इसके चारों कोनों पर चार वजीर या सलाहकार बैठते थें। इसकी बनावट पहली झलक में किसी को भी मंत्रमुग्ध करने के लिए काफी है।
सोचा यहां एक फोटो खिंचवाना तो बनता है। जैसे ही आगे बढ़ा, एक आवाज़ आई, ” एक मिनट, एक मिनट।” एक मोहतरमा झट से आई, चंद सेकेंड की वीडियो बना कर चलती बनी। बिना फोटो खिंचवाए ही आगे बढ़ना पड़ा।
दीवान-ए-ख़ास के पास एक बोर्ड दिखा जिसपर “एस्ट्रोलॉजर सीट” अंकित था। शायद यहां ज्योतिष उन दिनों में बैठा करते थे। इसके बाई तरफ एक इमारत दिखी जिसको अब आंख मिचौली बोलते है जो कभी राजकीय कोष हुआ करता था जहां सोने और चांदी का संचय किया जाता था।
इसके पीछे जाने पर दूर एक अजीब से स्तंभनुमा आकृति दिखी। विपिन ने बताया कि यही “हिरण मीनार” है।
जानकारी के लिए बता दूं कि हिरण मीनार अकबर ने अपने एक प्रिय हाथी की याद में बनवाया था। वाकई एक बेहद भावुक और मिलनसार व्यक्तित्व रहा होगा मुग़ल बादशाह अकबर।
इस एकमंजीला इमारत को नक्काशी के लिहाज से सम्पूर्ण किले परिसर की उत्तम इमारत बोलना बिल्कुल सही होगा। इसमें मेरी आंखों में चमक ला दिया।
इसके बरामदे की दीवारों पर की गई फूलों और पत्तियों के साथ-साथ ज्यामितीय नक्काशी निहारने योग्य है। अंदर कमरे में भी ऐसी ही नक्काशी की गई है
कुछ समय बाद इसको एक बरामदे द्वारा अन्य इमारत से जोड़ा गया और यह नई इमारत लड़कियों का मदरसा बना जहां अच्छी शिक्षा का प्रबंध किया गया था।
30 मीटर वर्गाकार यह तालाब जो चारों ओर से जलमग्न है और ठीक बीच में स्थित है एक जंगलेदार चबूतरा। चबूतरे पर पहुंचने के लिए चारों ओर से चार रास्ते है।
हम सभी महान संगीतकार तानसेन के बारे में पढ़ा और सुना है कि कैसे जब वो गाते थे तो बादल फट जाते थे और मसाले जल उठती थी। यह बात कितनी सच है ये तो मुझे नहीं पता पर यह स्थान उत्सवों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए प्रयोग किया जाता था।
तानसेन भी इसी जगह राग अलापते थे। पंचमहल के ऊपरी हिस्से पर बैठकर मुग़ल बादशाह अकबर और उनकी बेगमें इसका लुत्फ उठाया करते थे। मैंने अकबर और तानसेन से जुड़ी कई किवदंतियां पढ़ी और सुनी है। अब असल में इस जगह का अवलोकन करना एक सौभाग्य के बात है।
सम्पूर्ण फतेहपुर सीकरी किले के निर्माता के बारे में कबसे बताता चला आ रहा हूं। अब ये भी तो जानने का वक्त है कि आख़िर मुग़ल बादशाह रहता कहां था?
ख्वाबगाह वही स्थान है जहां मुग़ल बादशाह अकबर रहा करता था। निचले हिस्से में कमरे थे और ऊपर एक खुला बरामदा जो हवादार था। इस स्थान को ख्वाबगाह कहा जाता था।
नीचे शायद पुस्तकालय हुआ करता था जो भित्ति चित्रों, किताबों और फारसी छंदों से सुसज्जित था। ऊपर एक झरोखा भी था जहां से रोज अकबर अपनी जनता को दर्शन दिया करता था।
“भाई, सब तो हो गया पर ये दीवान-ए-आम किधर है?”, विपिन बोला।
मैं झट से टिकट वाले स्थान पर लिए गए महल की संरचना की फोटो देखने लगा। पता चला कि ख्वाबगाह के दाहिनी ओर निकास के पास ही है दीवान-ए-आम।
अच्छा तो ये है वो स्थान जहां अकबर बिना किसी भेदभाव के आम जनता की फरियाद सुनता था और सही फैसला लेता था। यह वाकई एक बड़ा हिस्सा है जिसके सामने एक बड़ा बगीचा है। शायद इसी बगीचे में लोग बैठा करते थे।
दीवान-ए-आम से निकास करने के बाद कुछ दूर पैदल चलने पर आप संग्रहालय पहुंच सकते है और ठीक इसके सामने स्थित है कारखाना जो कभी प्रयोग में लाया जाता होगा।
संग्रहालय में कई पुराने सिक्के, हथियार, मूर्तियों के अवशेष, बर्तन, सिक्के, शिलालेख आदि संग्रहित हैं।
नौबतखाना सामान्य रूप से प्रवेश द्वार होता है जहां दो सैनिक हमेशा तैनात रहते है। जब भी मुग़ल बादशाह अकबर महल में प्रवेश करता है बाहर निकलता, वे ढोल बजाकर घोषणा करते थे।
समय: सूर्योदय से सूर्यास्त तक
भारतीय पर्यटक, सार्क देश के पर्यटक : ₹35 (+5 प्रति व्यक्ति, टैक्स देना है)।
विदेशी पर्यटक: ₹550
15 वर्ष के कम बच्चों का प्रवेश मुफ्त है।
नोट: आप चाहें तो गूगल प्ले स्टोर से मॉन्यूमेंट ऑफ आगरा नाम का एप लेकर आगरा और फतेहपुर सीकरी के सभी जगहों की टिकट ऑनलाइन बुक कर सकते हैं।
आगरा और फतेहपुर सीकरी दिल्ली और जयपुर के साथ एक गोल्डन त्रिभुज माना जाता है। इसलिए फतेहपुर सीकरी पहुंचना बेहद आसान और सरल है। आगरा से फतेहपुर सिकरी की दूरी मात्र 43 किमी है। यहां पहुंचने के लिए आप निम्न तरीकों का प्रयोग कर सकते हैं।
निकटतम हवाई अड्डा आगरा का खेरिया हवाई अड्डा है पर यहां से ज्यादा उड़ाने नहीं है इसलिए बेहतर होगा या तो जयपुर हवाई अड्डा (200 किमी) या दिल्ली हवाई अड्डा (250 किमी) के माध्यम से आएं। दिल्ली और जयपुर से बस, कैब या ट्रेन ले सकते है।
आगरा में दो मुख्य स्टेशन हैं, आगरा किला रेलवे स्टेशन और आगरा कैंट। दोनों स्थानों से देश के कोने-कोने से ट्रेनें संचालित हैं। एक अन्य स्टेशन टूंडला भी है जो आगरा के पास है।
आगरा की दूरी दिल्ली से 240 किमी, जयपुर से 200 किमी और लखनऊ से 370 किमी है। मुख्य बस स्टेशन ईदगाह बस स्टेशन, आई एस बी टी आगरा और बिजलीघर बस स्टैंड है। आगरा से आप बस, टैक्सी या कैब कर सकते हैं।
कुछ समय पश्चात अकबर को फतेहपुर सीकरी छोड़ना पड़ा। मुख्य कारण पानी की कमी रही। यह इलाका पानी की सही श्रोत ना होने के कारण वीरान हो गया था। खैर सही मायनों में जैसा मैं सोचकर आया था, यह यात्रा उससे भी ज्यादा खास और अनुभवी रही।
जिन स्थानों और चीज़ों को मात्र इतिहास के किताबों में पढ़ा था, उसको सामने से देखना अत्यंत सुखमय और सीखने वाला रहा। यात्रा करते समय हमने कोविड-19 से बचाव के सभी नियमों का पालन किया।
उम्मीद करता हूं यह लेख आपको पसंद आया हो और मैं सभी जरूरी जानकारी देने में सक्षम रहा हूं। अगर फिर भी कोई चीज़ छूट गई हो या आप अपने विचार व्यक्त करना चाहते हैं तो नीचे टिप्पणी बॉक्स में बताएँ। हम खुद को और सुधारने का सम्पूर्ण प्रयत्न करने में तत्पर हैं।
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