भारतवर्ष में प्राचीन काल से ही वृक्षों की पूजा अर्चना होती चली आ रही हैं, फिर चाहे वो पीपल का पेड़ हो या बरगद का। पूजन – हवन में भी पेड़ो के पत्तों और लकड़ियों का प्रयोग किया जाता है। आम के पल्लव – लकड़ियों से लेकर केले के पत्तों तक। हमारे देश में बहुत से कल्पवृक्ष है जिनका बड़ा धार्मिक महत्व है।
ऐसा ही एक अद्भुत वृक्ष, उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के छोटे से कस्बे किंतूर में है। पारिजात के नाम से विख्यात इस वृक्ष के बारे में स्थानीय लोगो की मान्यता है कि यह भारत में ही नहीं अपितु विश्व में अपने तरह का इकलौता पेड़ है।
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चूंकि मैं स्वयं बाराबंकी से हूं, मेरे मन में भी इसके दर्शन की इच्छा काफी समय से थी। मैंने भी लोगों के मुख से बहुत सी प्रचलित कहानियां सुनी थी। एक दिन अचानक मिसफिट वांडरर्स के बंजारे निकल पड़े इस अद्भुत वृक्ष के दर्शन पाने के लिए।
जब मैंने इस वृक्ष को देखा तो बहुत अचंभित हुआ। यह सचमुच अद्भुत, अद्वितीय है। यह एक रहस्यमई पेड़ प्रतीत हो रहा था।
इसकी तने की चौड़ाई लगभग 50 फीट और लंबाई 45 फीट के आसपास होगी। वैज्ञानिक आज तक इस वृक्ष की आयु ज्ञात नहीं कर सके है। स्थानीय लोग तो इसकी आयु 1000-5000 वर्ष तक बताते हैं।
इस वृक्ष के साथ बहुत सी धार्मिक मान्यताएं प्रचलित है। सारी मान्यताएं महाभारत काल से जुड़ी हुई है। माता कुंती के नाम पर ही इस स्थान का नाम किंतूर पड़ा। सभी मान्यताओं का वर्णन विस्तारपूर्वक कर रहा हूं।
कहा जाता है कि जब धृतराष्ट्र ने पांडवो को अज्ञातवास दिया तो पांडवो के साथ माता कुंती भ्रमण करते करते यहां के वनों में पहुंची और यहीं पर निवास किया था। पास में भी भगवान शिव का एक मंदिर स्थापित किया जिसको कुंतेश्वर महादेव का नाम दिया। उन्होंने भगवान शिव को अर्पित करने के लिए स्वर्ग से पारिजात पुष्प लाने की इच्छा जताई।
अर्जुन ने बिना विलंब किए माता की इच्छा को ध्यान में रखते हुए स्वर्गलोक गए। वहां से पूरा वृक्ष ही ले आए और मंदिर के समीप स्थापित कर दिया ताकि माता को पूजा अर्चना करने में तनिक भी कष्ट ना हो।
एक मान्यता ये भी है कि एक बार श्रीकृष्ण अपने पत्नी रुक्मणि जी के साथ पूजन समारोह में शामिल होने हेतु रैवतक पर्वत पर गए।
वहां महर्षि नारद जी ने पारिजात का पुष्प को श्रीकृष्ण को भेंट किया, जिसको कृष्ण जी ने रुक्मणि जी को दिया। रुक्मणि जी ने पुष्प से अपने बालों को अलंकृत कर लिया।
यह बात दासियों द्वारा सत्यभामा जी तक पहुंची जो भी श्रीकृष्ण की धर्मपत्नी थीं। जब भगवान द्वारका स्थित सत्यभामा जी के महल में पहुंचे तो सत्यभामा जी ने उनसे पारिजात वृक्ष लाने का हठ पकड़ लिया। बहुत मनाने पर भी वह नहीं मानी। फिर श्रीकृष्ण ने अपना एक दूत स्वर्गलोक भेजा। देवराज इंद्र ने दूत को वृक्ष देने से इंकार कर दिया।
फ़िर भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ही स्वर्गलोक गए जहां उन्हें वृक्ष लाने के लिए देवराज इंद्र से युद्ध करना पड़ा। जब भगवान श्रीकृष्ण इंद्रदेव को पराजित करने के बाद जाने लगे तो इंद्र ने क्रोध में आकर वृक्ष पर कभी फल ना आने का श्राप दिया। इसी वजह से इसपर फूल तो आते हैं पर फल एक भी नहीं।
भगवान श्रीकृष्ण ने वृक्ष को इस तरह से स्थापित किया कि, वो था तो सत्यभामा जी के द्वार पर, लेकिन उसका पुष्प पास ही स्थित रुक्मणि जी के द्वार पर गिरता था। इसीलिए स्थानीय लोगों का मानना है कि आज भी जब इसके फूल झड़ते है तो वृक्ष से कुछ दूरी पर जा कर गिरते है।
कुछ लोगों का यह भी कहना है कि बाद में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सत्यभामा जी के महल से पारिजात वृक्ष लाने का आदेश दिया ताकि माता कुन्ती उसके फूलों का प्रयोग पूजन हेतु कर सके। तब अर्जुन ने वृक्ष को द्वारका से लाकर यहां स्थापित किया।
हरिवंश पुराण में इसको कल्पवृक्ष कहा गया है। मान्यता है कि इसकी उत्पत्ति समुद्रमंथन से हुई। फिर देवराज इन्द्र इसको अपने साथ स्वर्गलोक ले गए।
स्वर्गलोक में इसको स्पर्श करने का अधिकार सिर्फ़ उर्वशी नाम की अप्सरा को था। इस वृक्ष के स्पर्श मात्र से ही उर्वशी कि सारी थकान मिट जाती थी। लोगों का कहना है कि आज भी इसकी छाया में बैठने से सारी थकावट दूर हो जाती है।
एक कहानी यह भी है कि पारिजात नाम की एक सुंदरी हुआ करती थी, जिसको सूर्यदेव से प्रेम हो गया। बहुत कोशिश करने के बाद भी सूर्यदेव ने उसके प्रेम को स्वीकार नहीं किया। इस बात से खिन्न होकर उसने आत्महत्या कर ली। जिस स्थान पर उसकी कब्र बनी, उसी स्थान पर पारिजात का जन्म हुआ।
इस तरह के वृक्ष अफ्रीका प्रदेश में आमतौर पर पाए जाते है। इसको अफ्रीका में “बाओब” बोला जाता है। पारिजात वृक्ष, बाओब की जिस प्रजाति के समान दिखता है उसका नाम “अदांसोनिया दिजिताता” है। 16वीं शताब्दी में जब दिल्ली पर अलाउद्दीन ख़िलजी का शासन था, उस समय अफ्रीका के मोरक्को से एक नवयुवक विश्व भ्रमण पर निकला, जिसका नाम “इबन बतुता” था। वैज्ञानिकों का मानना है कि जब वो भारत आया तो अपने साथ इसको लाया और यहां स्थापित कर दिया।
शास्त्रों के अनुसार इसके पुष्पों ( फूलों ) का विशिष्ट महत्व है। पारिजात के पुष्पों का प्रयोग मुख्यतः शिवपूजन और लक्ष्मी पूजन में किया जाता है। अब इसमें काम मात्रा में फूल खिलते है। पुष्पित होते समय इसके फूल सफ़ेद रंग के होते है को शाम होते होते सुनहरे रंग में परिवर्तित हो जाते है।
हम चूंकि अगस्त के महीने में गए थे, तो हमें इसके फूलों के दर्शन हुए। इसके परिसर के बाहर कुछ फल फूल, प्रसाद की दुकानें है। जैसे ही हमने अंदर प्रवेश किया तो देखा कि वहां लोकगीत का मंचन हो रहा था। कुछ देर मंचन देखने के बाद हमने वृक्ष के दर्शन किए। यहां चारो ओर हरियाली आपका मन मोह लेगी।
पहले यह वृक्ष का स्पर्श आसानी से किया जा सकता था लेकिन लोगों के द्वारा वहां निरंतर जल और दूध अर्पण करने से उसके तने को नुकसान हो रहा था। फिर स्थानीय प्रशाशन ने उसके चारो ओर घेरा लगा दिया। अब लोग दूर से ही अपनी पूजा अर्चना करते हैं।
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से किंतूर की दूरी 67 किमी और अयोध्या से लगभग 100 किमी है। यहां पहुंचने का सबसे आसान और सुगम तरीका सड़क मार्ग के द्वारा है। लोकल ट्रेन भी चलती है, लेकिन उसमें आपको थोड़ा कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है।
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Bahut sunder sir
well done bhai👍
Thanks bhai🙏
Nice article……..
Shukriya sir