इस पोस्ट में, हम चंद्रिका देवी मंदिर के दर्शन करने के अपने वास्तविक अनुभव को साझा करेंगे, आपको लोकप्रिय किंवदंतियों से अवगत कराएंगे, आपको कुछ यात्रा सुझाव बताएंगे और साथ ही बताएंगे कि आपको लखनऊ के निकट स्थित इस धार्मिक स्थान पर जाने के बारे में क्यों विचार करना चाहिए।
जैसा कि मैं हमेशा से बोलता रहा हूं कि हम एक ऐसे राष्ट्र के निवासी है, जहां के कण-कण में देवी देवता विराजमान हैं। हम एक हीरे के ऐसे खदान पर खड़े है, जहां हम जितनी गहराई खुदाई करेंगे उतना ही धार्मिक, आस्थिक और सांस्कृतिक सागर में गोता लगाते जायेंगे।
जिस बात पर मुझे सबसे ज्यादा गर्व होता है, वो ये है कि इसी संस्कृति सभ्यता को देखने के लिए विदेश के कोने-कोने से लोग यहां दर्शनार्थ को चले आते है। अब आप इसी बात से अंदाजा लगा लीजिए कि हर साल लाखों की संख्या में पर्यटक भारत भ्रमण को आते हैं।
हमारे करोड़ों देवी-देवताओं में से एक दुर्गा माता है, जिनकी पूजा आराधना सम्पूर्ण भारतवर्ष में किया जाता है। बंगाल में होने वाले दुर्गा पूजा और पूरे भारत देश में मनाए जाने वाले नवरात्रि पर्व तो आपको पता ही होगा। इस दौरान सभी लोग भक्ति-भावना से ओतप्रोत हो कर माता की आराधना में विहीन हो जाते हैं।
आज मैं उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के निकट स्थित चंद्रिका देवी मंदिर का बखान करूंगा। चंद्रिका देवी, माँ दुर्गा की एक अवतार हैं। हालांकि बचपन में मैं एक बार इस धाम की यात्रा पर गया था पर तब मैं एक अबोध बालक था।
जब मुझे इस स्थान की महिमा के बारे में ज्ञात हुआ तो फिर से इसके दर्शन की इच्छा मन में बढ़ती ही गई और यही जिज्ञासा मुझे एक रोज यहां तक खींच लाई।
मंदिर के इतिहास का संबंध महाभारत और रामायण काल से जुड़ा हुआ है। हालांकि इसके निर्माण की कोई सही जानकारी प्राप्त नहीं होती है लेकिन ऐसा कह जाता है कि यह मंदिर 12 वीं शताब्दी से पहले का है। 12 वीं शताब्दी के आसपास जब विदेशी आक्रमणकारी यहाँ आएं तो उन्होंने मंदिरों को अटूट शिकार बनाया और तमान मंदिरों को नष्ट किया। उसी आक्रमण में चंद्रिका देवी मंदिर को भी काफी हद तक नष्ट कर दिया।
वर्तमान समय में जो मंदिर स्थित है, वह आज से लगभग 300 वर्ष पुराना है, जिसे आसपास के स्थानीय लोगों द्वारा बनवाया गया था। एक अन्य कहानी प्रचलित है कि एक व्यक्ति को एक बार स्वप्न में देवी के दर्शन हुए और अगले ही दिन उसने वहां एक मूर्ति स्थापित करवाई और धीरे-धीरे स्थानीय लोगों ने मंदिर के बाकी रूपरेखा तैयार करने में अपना योगदान दिया।
मां चंद्रिका देवी मंदिर का वातावरण इसको भक्ति भावना स्वरूप अनुकूल बनाता है। चारों तरफ हरियाली और एक अद्भुत सी शांति का माहौल जो किसी भी व्यक्ति को भक्ति भावना में लीन करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा।
मंदिर का प्रागंण काफी विशाल है और थोड़ी ऊंचाई पर स्थित मां के दर्शन के लिए आपको स्टील निर्मित पाइपों से होकर गुजरता पड़ेगा। निकट ही एक हवन कुण्ड और यज्ञशाला भी है जहां हवन पूजन किया जाता है। इसके ठीक सामने एक मठ बना हुआ है जो मंदिर का ट्रस्ट है और ठहरने का स्थान भी है।
मंदिर के निकट ही एक कुंड स्थित है, जिसे सुधनवा कुण्ड या महीसागर तीर्थ के नाम से जाना जाता है।
गोमती नदी की धारा मां चंद्रिका देवी मंदिर के निकट से उत्तर, पश्चिम और दक्षिण दिशाओं में प्रवाहित होती है और पूर्व की दिशा में महीसागर तीर्थ हैं। इसके बीचोबीच थोड़ी ऊंचाई पर भगवान शिव की एक विशाल प्रतिमा है जो निसंदेह आकर्षण का एक केंद्र है।
इस ऐतिहासिक मंदिर से जुड़ी बहुत सारी किवदंतियां है, जिन्हें मैं बारी-बारी से आपको बताऊंगा।
स्कंध पुराण के अनुसार मान्यता है कि द्वापर युग में श्रीकृष्ण ने घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक को अद्भुत शक्तियां प्राप्त करने हेतु इस महीसागर तीर्थ पर तप करने को कहा था। श्रीकृष्ण की बात पर अमल करते हुए उन्होंने तीन वर्ष तक यह कठोर तप किया। जानकारी के लिए बाटा दूं कि घटोत्कच, मनाली स्थित हिडिंबा देवी मंदिर की देवी हिडिम्बा जी के पुत्र है, मतलब बर्बरीक, हिडिंबा देवी के पोते थे। असल में बर्बरीक को ही खाटू श्याम के नाम से भी जाना जाता है। इनका मुख्य मन्दिर राजस्थान में स्थित है।
महीसागर तीर्थ के कुछ दूर पहले ही बर्बरीक को समर्पित एक मंदिर है, जो कि नवनिर्मित है। हमने वापस आते समय इस मंदिर के भी दर्शन प्राप्त किए।
एक अन्य मान्यतानुसार त्रेता युग में लखनऊ के अधिपति भगवान लक्ष्मण जी और उर्मिला जी के पुत्र चन्द्रकेतु यहां से गुजर रहे थे। चलते-चलते रात्रि हो गई और उस दिन अमावस्या की रात्रि थी। मजबूरन उनको रात्रि वहीं समीप वन में गुज़ारनी पड़ी।
अमावस्या कि काली रात में उनके मन को भयभीत कर दिया। फिर उन्होंने माता द्वारा बताए गए नवदुर्गाओं का स्मरण किया। कहा जाता है कि वो काली रात भी मां की कृपा से चांदनी रात में परिवर्तित हो गई और मां चंद्रिका देवी स्वयं उनके समक्ष प्रकट हुईं और उनकी रक्षा करने का आश्वासन दिया।
एक अन्य मान्यता के अनुसार महाभारत काल में युधिष्ठिर पांचों पाण्डव वनवास के दौरान यहां वास किया और निकट ही अश्वमेध यज्ञ किया और घोड़े को छोड़ा। उस काल के शासक राजा हंसध्वज द्वारा घोड़े को रोक लिया गया, जिसका परिणाम पाण्डवों और हंसध्वज के मध्य युद्ध निकला। युद्ध में हंसध्वज के दूसरा पुत्र सुधन्वा शामिल नहीं हुआ। वो मां चंद्रिका देवी का बड़ा भक्त था और उनकी भक्ति में खुद को समर्पित कर दिया था।
राजा ने क्रोध में आकर उसको महीसागर क्षेत्र स्थित खौलते हुए तेल में डलवाकर उसकी परीक्षा ली। मां की असीम अनुकम्पा से उसके शरीर को कुछ नहीं हुआ। इसके बाद महीसागर तीर्थ को सुधन्वा कुण्ड के नाम से भी जाना जाने लगा। लोगों का कहना है कि युधिष्ठिर की सेना जिसको कटक भी कहा जाता है, ने इस क्षेत्र में वास किया, जिसकी वजह से यह स्थान कटकवासा के नाम से प्रसिद्ध हुआ जो वर्तमान काल में कठवारा के नाम से जाना जाता है।
एक अन्य किवदंती यह भी है कि राजा दक्ष प्रजापति द्वारा दिए गए श्राप से मुक्ति पाने के लिए स्वयं चंद्रदेव भी इस स्थान पर आए और इस पवित्र कुण्ड में स्नान किया।
चंद्रिका देवी मंदिर में नवरात्रि का त्यौहार बड़े ही धूमधाम और पूरे भक्ति भाव से मनाया जाता है। इन 9 दिनों में पूरा मंदिर परिसर आसपास के जिलों से आए हुए शरणार्थियों और मां के भक्तों से खचाखच भरा रहता है। इसके अलावा अमावस्या के दिन और उसके पूर्व संध्या पर भी उत्सव मनाया जाता है, जिसने शामिल होने हेतु अधिक संख्या में भक्तगण यहां आते हैं।
मंदिर के पुजारी से कुछ शब्दों का आदान प्रदान करने के पश्चात ज्ञात हुआ कि प्रतिदिन सुबह और संध्या को मां की आरती होती है जिसमे निकट के गांववाले सम्मिलित होते हैं। लोग प्रसाद के साथ मन्नत की चुनरी भी बांधते है और मन्नत मांगते है। पुजारी जी के अनुसार मा सबकी मनोकामना पूर्ण करती हैं।
ग्रीष्म काल प्रातः 7 बजे से रात्रि 9 बजे तक।
शीतकाल प्रातः 6 बजे से रात्रि 10 बजे तक।
मां चंद्रिका देवी मंदिर के कुछ दूर पहले ही एक नवनिर्मित मंदिर स्थित है, जो खाटूश्याम अर्थात् बर्बरीक जी को समर्पित है। माता के दर्शन करने के पश्चात मैं यहां भी आया और बर्बरीक जी के आशीर्वाद प्राप्त किया।
आपको बता दूं कि बर्बरीक जी एक महान योद्धा थे। उनकी मां ने बचपन में एक सीख दी थी कि जीतने वाले का साथ तो सभी देते है, तुम सदैव हारने वाले का साथ देना। तभी से मां के द्वारा बताए गए राह पर चलते हुए उन्होंने जीवनभर हारने वाले का साथ दिया। इसलिए इनको “हारे का सहारा” कहा जाता है।
लखनऊ के उत्तर पश्चिम दिशा में लखनऊ सीतापुर राष्ट्रीय राजमार्ग पर कुछ दूरी पर कठवारा नामक गांव में यह तीर्थस्थल स्थित है। लखनऊ के मुख्य इलाके से इस मंदिर की दूरी 28 किमी और लखनऊ हवाई अड्डे से इसकी दूरी 45 किमी है। लखनऊ के किसी भी कोने से यहां तक पहुंचने के लिए आप टैक्सी या स्वयं के वाहन से जा सकते है क्योंकि यहां पहुंचने का कोई अन्य सुलभ उपाय नहीं है।
मैंने और मेरे सहयात्री विपिन अपने दुपहिया वाहन से इस स्थान तक पहुंचे। चूंकि हम कोरोना काल में यहां गए थे तो भक्तों की संख्या काफी कम थी। कुण्ड में हाथ पैर धोने के पश्चात प्रसाद लेकर माता के दरबार की ओर अग्रसर हुए। मंदिर में जगह-जगह निर्देश लगे हुए थे और सामाजिक दूरी के साथ साथ बचाव के सभी नियमों का बखूबी पालन किया जा रहा था।
दर्शन के पश्चात हमने अपना कुछ वक्त और कुण्ड के समीप बैठकर बिताया और कल्पना की उस काल की जब यह सब किवदंतियां हुई थी। मुझको एक अद्भुत शान्ति और आनन्द की अनुभूति हुई। वापस आते समय कुछ शानदार तस्वीरें खींची और निकट ही स्थित बर्बरीक जी के दर्शन भी किए।
मुझे यकीन है कि इस लेख के माध्यम से मैं इस मंदिर की उन सभी जानकारियों को आप तक पहुंचाने में सक्षम रहा हूं। यदि कोई चीज़ मुझसे छूट गई हो या आपके उत्तेजित मन में कोई सवाल आ रहा हो तो बेझिझक नीचे दिए टिप्पणी बॉक्स में अपने विचार प्रकट करें।
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