“आपका धर्म क्या है?”, मेरे साथी यात्री ने पूछा जब मैं उदयपुर से अजमेर शरीफ को रवाना हो रहा था।
” घुमक्कड़ी”, मैंने बड़ी उत्सुकता के साथ जवाब दिया।
उनकी आंखे खुली की खुली रह गई और चेहरे पर जैसे सवालिया निशान लग गया था।
फ़िर जब मैंने उनको विस्तारपूर्वक सब समझाया तब उनको मेरे जवाब के पीछे का तर्क समझ आया।
हमारे यहां ऐसी मान्यता है कि दूरदराज क्षेत्रों में स्थित धार्मिक स्थलों के दर्शन का सौभाग्य तभी प्राप्त होता है जब वहां से बुलावा आया है या वहां जाना लिखा होता है। कुछ ऐसा ही हुआ मेरे साथ। 2 जनवरी 2020 को हमारी लखनऊ वापसी की ट्रेन अजमेर से थी।
चूंकि मेरे मन में ख़्वाजा गरीब नवाज़ के दर्शन की उत्सुकता थी, अतः अजमेर जंक्शन से मैं बिना वक़्त गवाएं सीधे दरगाह की और अग्रसर हुआ।
हज़रत मुईनुद्दीन चिश्ती का जन्म सन् 1142 ई में ईरान के एक छोटे से गांव सिस्तान में हुआ था। कुछ विद्वान इनकी पैदाइश अलग अलग बताते है। इसको लेकर कई मतभेद है।
मात्र 9 वर्ष की आयु में ही ये हाफ़िज़ ए कुरान हो गए।
बचपन से ही बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे।
ये अपने चिश्तिया तरीके के भारत में पुनर्स्थापना के लिए प्रसिद्ध हुए। इनको ख़्वाजा गरीब नवाज़ , ख़्वाजा साहब, हज़रत मुईनुद्दीन चिश्ती अजमेरी के नामों से भी जाना जाता है।
चिश्तिया सुन्नी सूफ़ीवाद का एक संप्रदाय है। यह सन् 930 के आस-पास अफगानिस्तान के एक गाँव चिश्त में शुरू हुआ। यह संप्रदाय प्यार, सहनशीलता और खुलेपन पर अपने बल के कारण प्रसिद्ध है।
यह तरीका अफ़ग़ानिस्तान के आस पास के प्रांतों में तो फैला लेकिन भारत उपखण्ड तक नहीं पहुंच पाया। भारत में इस तरीके को पहुंचाने का जिम्मा खुद ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती ने लिया। 12वीं शताब्दी के बीच में ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती के द्वारा अजमेर में इसकी शुरुआत की गई।
ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती खुद को अल्लाह की सेवा में समर्पित कर दिया था। वो जगह जगह जाकर लोगों को सूफीवाद और चिश्तिया तरीके के बारे में बताते थे।
ईरान और इराक में सूफीवाद के प्रचार प्रसार के बाद वो भारत की ओर बढ़े और सन् 1192 इस्वी में लाहौर होते हुए भारत में दाखिल हुए और अजमेर में रुके। वे यहां सूफीवाद और चिश्तिया तरीके का प्रसार करने आए थे।
जिस समय ख़्वाजा साहब अजमेर आए, उस समय अजमेर पर पृथ्वी राज चौहान का शासन था। वो जब अजमेर पहुंचे तो अपने शिष्यों के साथ ठहरने के लिए एक जगह पर बैठे लेकिन कुछ समय पश्चात राजा के कुछ सिपाही आए और बोला की ये राजा के उंटो के बैठने की जगह है। इसपर ख़्वाजा साहब ने बोला कि ऊंटों के बैठने की जगह है तो वही बैठे, और वहां से उठकर अन्ना सागर झील के पास एक पहाड़ी के पास डेरा डाल लिए।
राजा के ऊंट आए और बैठे और ऐसा बैठे की लाख कोशिशों के बाद भी नहीं उठे। धीरे धीरे यह बात सभी जगह फैल गई। जब यह बात पृथ्वी राज चौहान को पता चली तो उन्होंने शीघ्र सैनिकों को भेजकर उस फकीर से माफी मांगने को बोला। सिपाहियों ने राजा की बात मानी और जाकर छमा याचना किए। ख़्वाजा साहब ने बोला कि जाओ ऊंट खड़े हो गए है। सचमुच ऐसा ही हुआ।
ऐसे कई चमत्कार के उदाहरण उन्होंने अपने जीवनकाल में किए। सबको यहां संकलित कर पाना मुश्किल है।
इतिहासकारों का कहना है कि मुगल बादशाह अकबर की भी इस दरगाह में विशेष आस्था थी। अकबर पुत्र प्राप्ति की चाहत में नंगे पांव ही आगरा से अजमेर आया था और पुत्र प्राप्ति की मुराद मांगी। यह यात्रा करने में उसको 15 दिन का समय लगा। यहां से वापस जाने के बाद उसको पुत्र के रूप में सलीम कि प्राप्ति हुई।
इससे प्रसन्न होकर वो लगभग हर साल यहां दर्शन करने आया करता था। यह दरगाह वर्षों तक उसका पसंदीदा गंतव्य स्थान बनी रही।
दरगाह का मुख्य स्थान मुगल शासक हुमायूं द्वारा बनवाया गया था। बाद में सुल्तान महमूद खिलजी, अकबर, शाहजहां और हैदराबाद के निजाम ने भी कई इमारतों के निर्माण में अपना योगदान दिया। इन सबके द्वारा बनवाए गए इमारतों का नीचे विस्तारपूर्वक वर्णन कर रहा हूं।
अंदर पहुंचने के लिए आपको तीन द्वारों को पार करना होगा जिसमें पहले आता है मुख्य द्वार जो ‘ निजाम गेट ‘ के नाम से विख्यात है।
यह गेट हैदराबाद के 7वें निजाम मीर उस्मान अली खान ने बनवाया था। यह वास्तव में बहुत विशाल गेट है।
आप जैसे ही निज़ाम गेट में प्रवेश कर के थोड़ा आगे बढ़ेंगे वैसे ही एक और दरवाज़ा जिसे शाहजहानी दरवाज़ा बोलते है, आपके स्वागत को तैयार मिलता है। इस दरवाज़े का निर्माण शाहजहां ने करवाया था। इसमें एक नक्कारखाना भी है।
यह तीसरा और आखिरी दरवाज़ा है जो आपको मुख्य परिसर में ले जाएगा। इसको सुल्तान महमूद खिलजी ने सन् 1455 ईस्वी में बनवाया था। इसकी ऊंचाई 85 फीट है।
जैसे ही आप बुलंद दरवाज़ा से प्रवेश करते है तो आपको पूर्व में छोटी देग और पश्चिम में बड़ी देग दिखाई देगी।
देग एक प्रकार का बड़ा मटके के आकार का बर्तन होता है, जो धातु से बना होता है।
बड़ी देग को अकबर ने सन् 1569 में दान में दिया था। इसमें एक बार में 4800 किलो खाना पकाया जा सकता है। इसमें हर सुबह प्रसाद के रूप में केसरिया मीठा चावल पकाया जाता है जो पूर्ण रूप से शाकाहारी होता है।
छोटी देग को जहांगीर ने सन् 1615 में भेंट किया था। इसमें लगभग 2500 किलो खाना एक बार में पकाया जा सकता है।
बीचोबीच में स्थित मुख्य दरगाह आकर्षण का केन्द्र है। इसका गुंबद संगमरमर से बना है और उसके चारो तरफ की आकृति काफी मनमोहक प्रस्तुति देती है। उसी के मध्य में स्थित है ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की की पावन कब्र।
पुत्र प्राप्ति से प्रसन्न होकर बादशाह अकबर ने सन् 1570 में लाल पत्थरों की एक सुंदर मस्जिद बनवाई जिसको अकबरी मस्जिद के नाम से जाना जाता है। उसने उसी साल मस्जिद बनवाया था जिस साल उसको पुत्र प्राप्ति हुई थी।
हम सबको पता है कि मुगल शासक शाहजहां को वास्तुकला से कितना प्रेम था। इसका जवाब इसी बात से मिलता है कि उन्होंने अपने जीवनकाल में कितने इमारतों का निर्माण करवाया। इस मस्जिद का निर्माण भी शाहजहां ने सन् 1640 में करवाया था। यह वाकई बेहक खूबसूरत और आकर्षक है। मस्जिद की दीवारों पर पवित्र क़ुरान के 33 छंद (वर्सेस) और अल्लाह के 99 नामों उकेरा गया है।
चूंकि मैं सुबह 5:30 पर अजमेर शरीफ दरगाह पहुंच गया था। तीनों भव्य द्वार पार करके में मुख्य बरामदे में पहुंचा। उस समय सुबह की नमाज़ अदा की जा रही थी। मैं दर्शन करने की लाइन में खड़ा हो गया। पता नहीं क्यों मुझे दरगाह में जो गुलाब और इत्र की खुश्बू आती है वो मुझे बहुत अच्छी लगती है। और जो दूसरी चीज सबसे ज्यादा प्रभावित करती है वो वहां का शांत वातावरण।
जैसे तैसे भीड़ भाड़ से होते हुए चांदी के गेट पास पहुंचा जो ख़्वाजा साहब के दर पर प्रवेश करने का द्वार था। दर्शन करने के पश्चात मस्जिद होते हुए देग तक पहुंचा।
मैंने पाया की देग के पास बहुत भीड़ लगी है। उत्सुकतावश मैं भी आगे बढ़ा। मैंने पाया की लोग उसके अंदर अपनी इच्छा के अनुसार भेंट चढ़ा रहे हैं।
प्रवेश – निःशुल्क
गर्मियों में – प्रातः 4 बजे से रात 10 बजे तक
सर्दियों में– प्रातः 5 बजे से रात 9 बजे तक।
अजमेर शरीफ में क्या विशेष है?
अजमेर शरीफ ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह है, जिन्होंने अपने जीवनकाल गरीबों और जरूरतमंदो की मदद करने ने बिता दिया। लाखों लोग हर साल इनके दरगाह पर आते हैं।
अजमेर शरीफ में प्रवेश करते समय क्या वस्त्र पहने?
हर दरगाह की तरह यहां भी आपको अपना पूरा शरीर और सिर ढक कर जाना होता है।
कौन कौन दरगाह के अंदर प्रवेश कर सकता है?
अजमेर शरीफ भारत का सबसे बड़ा दरगाह है। यहां हर धर्म और संप्रदाय के लोग जा सकते हैं।
क्या कैमरा और बैग ले जा सकते हैं?
बिल्कुल नहीं। कैमरा और बैग अंदर नहीं ले जा सकते है। आप निज़ाम गेट के बगल के काउंटर पर बैग जमा कर सकते हैं।
आसपास और क्या क्या घूम सकते है?
दरगाह से कुछ ही दूरी पर ढाई दिन का झोपड़ा और अन्ना सागर झील है, जिसे आप पैदल ही घूम सकते है। अजमेर से 15 किमी की दूरी पर एक और धार्मिक स्थल पुष्कर है। पुष्कर वह स्थान है जहां भगवान ब्रह्मा जी का एकमात्र मंदिर है।
इस्लाम में उर्स क्या होता है?
उर्स किसी सूफ़ी संत की मृत्यु की सालगिरह होती है। अनुयायी अपने संत को अल्लाह का पैगम्बर मानते है। उनका मानना होता है कि मृत्यु मतलब संत की अल्लाह से मुलाकात। इसीलिए उर्स मनाया जाता है।
ख़्वाजा साहब की मृत्यु कब हुई?
इनकी मृत्यु 15 मार्च सन् 1236 ईस्वी में हुई।
हर साल इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का सालाना उर्स मनाया जाता है। इस दौरान यहां बड़ा मेला लगता है जिसमें देश ही नहीं विदेश से भी लाखों श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं।
अजमेर सड़क मार्ग द्वारा देश के सभी हिस्सों से जुड़ा है। दिल्ली से आप पहले जयपुर, और जयपुर से अजमेर पहुंच सकते है। राज्य परिवहन निगम लगातार अंतराल पर चलती है। आप टैक्सी का भी सहारा ले सकते हैं।
अजमेर जंक्शन देश के सभी राज्यों से जुड़ा हुआ है। उर्स के समय कई विशेष ट्रेन भी चलती है। रेलवे स्टेशन से दरगाह की दूरी मात्र 1.3 किमी है।
सबसे निकटतम एयरपोर्ट जयपुर है, जो करीब 140 किमी की दूरी पर है। वहां से आप बस, ट्रेन या टैक्सी की मदद ले सकते है।
सभी प्राणी माता के गर्भ से आते है। हम सभी को मानवता की एकता का स्पष्ट बोध होना चाहिए।
-दलाई लामा
अर्थात् धर्मो से ऊपर एक और धर्म है वो है, मानवता। हमें अच्छे कर्म, लोगो की सेवा करनी चाहिए और अच्छाई के मार्ग पर चलना चाहिए। सभी धर्मों का यहीं एक सूत्रधार है।
अगर आप भी अजमेर दरगाह जाने की योजना बना रहे है तो उम्मीद करता हूं कि यह लेख आपकी भरपूर मदद करेगा। दरगाह से सम्बन्धित कोई भी सवाल या सुझाव आपके पास है तो हमसे जरूर साझा करें।
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