यह लेख लखनऊ में ब्रिटिश सरकार द्वारा बसाएं गए एक कॉलोनी रेसीडेंसी के बारे में बताती है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान यह इमारत चिन्हित किया गया और हमला किया गया। इतिहास में रूचि रखने वालों के लिए यह एक आदर्श स्थान है। इसकी पूर्ण जानकारी इस लेख में है।
1857 में छिड़े भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कई शहरों की अहम भूमिका रही। उसी में से एक शहर उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ रही, जहां की इमारतों आज भी क्रांति की गूंज को महसूस किया जा सकता है। इसी क्रम से एक महत्त्वपूर्ण इमारत या यूं कहे कि कॉलोनी ब्रिटिश रेसीडेंसी रही जहां की एक एक दीवार अपना दर्द बयां करता है और क्रांति के दौरान किए गए हमलों की निशानी आज भी मौजूद है।
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जब महामारी अपने चरम सीमा पर थी और यात्रा काफी हद तक बंद हो गई थी तब एक नए शब्द “बैकयार्ड ट्रैवल” का प्रचलन होने लगा और हम भी भला इससे अछूते कैसे रह सकते थे। और एक हिसाब से यह अनुकूल भी था कि जब आप लंबी दूरी की यात्रा नहीं कर सकते हैं तो क्यों नहीं आसपास की जगहों की यात्रा की जाए।
चूंकि हम पहले ही रेसीडेंसी की यात्रा बहुत बार कर चुके थे पर इस बार एक नए उद्देश्य और मकसद से इस स्थान की खोज करने का विचार बनाया। मैं अपने साथी यात्री विपिन के साथ दुपहिया वाहन पर सवार होकर इस ऐतिहासिक महत्व वाले जगह पर पहुंचा।
रेसीडेंसी का इतिहास हमें उस वक़्त में ले जायेगा जब लखनऊ पर नवाबों का हुकूमत हुआ करता था और ब्रिटिश सरकार भी भारत में अपनी पकड़ मजबूत करती जा रही थी। जब असफ़ उद दौला ने अपनी राजधानी फैजाबाद से स्थानांतरित करके लखनऊ किया तब वहां की बस्ती गई कॉलोनी भी साथ स्थानांतरित हुई और नवाब साहब ने लखनऊ में ब्रिटिश आवास के निर्माण की बात पर अपनी मुहर लगाई।
कुल 33 एकड़ के हिस्से में फैला हुआ रेसीडेंसी परिसर अवध क्षेत्र में सबसे बड़ी बसाई जाने वाली ब्रिटिश कॉलोनी थी। इस समय यह ब्रिटिश कमिश्नर और शाही ब्रिटिश लोगों का आवास हुआ करता था।
जिस घटना के लिए यह इमारत सबसे ज्यादा प्रचलित हुआ वह था 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के पहले युद्ध के दौरान इस इमारत पर हुए भयानक हमला। इतिहास के पन्नों में इस स्थान की एक अहम भूमिका रही।
रेसीडेंसी परिसर में बहुत सारी विशाल और ऊंची इमारतें मौजूद हैं। हर इमारत बनाने के पीछे एक मकसद था। आज हम इन सभी इमारतों से रूबरू होंगे और जानेंगे इनके पीछे की कहानी।
प्रवेश करने लिए आपको इस द्वार से होकर गुजरना पड़ेगा। यह आज भी प्रवेश द्वार के रूप में कार्य करता है। बैले गार्ड गेट के नाम से मशहूर इस भव्य प्रवेश द्वार का निर्माण नवाब सादत अली खान ने कैप्टन जॉन बैले को एक विशेष सम्मान और सलामी देने के लिए करवाया। इसके साथ निर्मित वॉटर गेट और नौबतखाना अब नष्ट हो चुका है।
प्रवेश करते ही आपकी नजर सबसे पहले दाहिनी तरफ की इमारत पर पड़ेगी जो आज भी गोलों और तोपों के निशान से परिपूर्ण है। इसके सामने की इटकिन की पोस्ट आपको अपनी ओर खींचने का भरपूर कोशिश करेगी। सन् 1851 में इस दोमंजिला इमारत बनकर तैयार हुआ और इसे कोषागार के रूप में प्रयोग किया जाने लगा।
जब 1857 में स्वतंत्रता संग्राम की पहली क्रांति हुई तो इसके मध्य भाग को इनफील्ड कारतूस बनाने के कारखाने के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। सबसे बाहरी इमारत होने कि वजह से इस इमारत सबसे पहले हमले का शिकार हुए जिसके निशान आज भी दृष्टिगत हैं।
इसके बाद बारी आती है कोषागार से सटे हुए सबसे भव्य इमारत की, जोकि भोजशाला है। पूरी तरह से नष्ट होने के बावजूद आज भी इसके भव्यता का अनुमान लगाया जा सकता है। इसका निर्माण नवाब सादत अली खान द्वारा ब्रिटिश प्रवासी लोगों और विशिष्ट अतिथियों के स्वागत स्वरूप करवाया गया था। इसको दावतखाना भी बोला जाता था।
इसके निचली मंजिल का फर्श संगमरमर से निर्मित है और इसके अंदर स्थापित एक फव्वारा आज भी स्थापित है। फव्वारे के दोनों तरफ रंगमंच निर्मित है जहां शायद शाम के वक्त रंगारंग कार्यक्रम का आयोजन होता होगा। दोनों तरफ किनारे सीढ़ियां लगी है जो ऊपर के मंजिल की ओर ले जाती हैं।
इसके सभी कमरे और सभागार कीमती झड़ फनूसो, आइनो और रेशमी दीवान से सुसज्जित थे। यहां नवाब के साथ साथ शाही लोगों के लिए भोज और मनोरंजन का आयोजन होता था। सन् 1857 क्रांति के हमले के दौरान इसको अस्पताल में परिवर्तित किया गए जिसमे सभी घायल सैनिकों का इलाज होता था।
जैसे ही मैं भोजशाला से निकलकर बाहर आया तो सामने एक ऊंचाई पर एक अन्य इमारत दिखी जिसके आसपास एक छोटा सा लॉन दिखा। मैंने कुछ पल के लिए सोचा की एक डॉक्टर के लिए इतना आलीशान इमारत? पता लगाने के लिए झट से उसकी ओर दौड़ा।
जानकारी करने पर मालूम हुआ कि डॉक्टर फेयरर रेसीडेंसी के प्रमुख चिकित्सक थे जो वहां के सभी लोगों का इलाज करते थे। यह एकमंजिला भवन है जिसके नीचे के हिस्से में एक तहखाना है।
1857 के हमले के दौरान सभी घायलों का इलाज यहां भी किया जाता था। तहखाने के हिस्से को आवास के रूप में परिवर्तित किया गया था जिसके अंदर महिलाओं और बच्चों को सुरक्षित रखा गया था। डॉक्टर फेयरर ने उस समय सैकड़ों लोगों का इलाज किया और एक अहम भूमिका निभाई। सर हेनरी लॉरेंस की मृत्यु इसी इमारत में 4 जुलाई को हुई थी।
भोजशाला से कुछ कदम सीधे चलने पर एक विशाल मैदान दिखाई देता है जहां एक स्मारक बना हुए है। यह रेसीडेंसी के सभी स्मारकों में सबसे बड़ा और और दूर से ही अपनी प्रस्तुति देता है। यह स्मारक सर हेनरी लॉरेंस की है जो उस समय सबसे ताकतवर शख्सियत माने जाते थे।
स्मारक के पास सामने की ओर दो बड़ी बड़ी तोपें स्थापित है जो शायद उस वक़्त युद्ध में प्रयोग किया गया होगा। ईमारत के पीछे भी दो तोपें स्थित हैं। यही पर एक इमारत के उपरी हिस्से पर शिलापट पर “1857 मेमोरियल संग्रहालय” अंकित है। क्रांति के दौरान प्रयोग किए गए औजारों के साथ साथ जरूरी शिलालेख, पुरानी तस्वीरें, पेंटिग्स, कागजात, बंदूक, तलवार, तोप, और अन्य चीज़ें अच्छी अवस्था में संग्रहित हैं।
इसके अलावा रेसीडेंसी का मैप, वास्तविक पत्र, अंग्रेजी अफसरों के साथ साथ नवाबों की चित्रकला सुशोभित हैं। यह स्थान स्वतंत्रता संग्राम की यादों को फिर से तरोताजा करता है और आपको सोच के सागर में ले जाता है।
तो अब बात करते है मुख्य इमारत की जो एक तीनमंजिला इमारत है। सादत अली खान द्वारा इसका निर्माण करवाया गया और 1857 तक यह अवध के मुख्य कमिश्नर का आवास हुआ करता था। इसमें कुल 2 कमरों के साथ साथ एक तहखाना, बगीचा और एक बरामदा भी है। उपरी हिस्से पर जहां कभी बिलियर्ड्स रूम और लाइब्रेरी हुआ करता था, आज पूर्ण रूप से ध्वस्त अवस्था में है। ईमारत के सामने एक नवनिर्मित स्तम्भ है जो हमले में शहीद सभी सैनिकों की याद में बनाया गया है।
निचले मंजिल पर तीन कमरों के साथ एक मध्य हॉल भी है। सीढ़ियां का तो आप अंदाज़ा है नहीं लगा सकते क्योंकि इसका नामोनिशान तक नहीं है। स्वतंत्रता संग्राम के हमले के दौरान इसको 32वें रेजिमेंट द्वारा संभाला गया और तहखाने का प्रयोग औरतों और बच्चों को सुरक्षित रखने के लिए किया गया। इसके हिस्सों पर हमले का निशान आज भी मौजूद हैं।
जिस चीज ने मेरे अंदर रक्त का संचार तीव्र किया तो था इसके उपरी हिस्से पर लहराता हुआ भारतीय राष्टीय ध्वज तिरंगा है। वो नज़ारा देखकर हर एक भारतीय का मस्तिष्क गर्व से ऊंचा उठ जाता है। मुख्य इमारत के बाएं ओर एक हिस्से में लाईट एंड साउंड शो का आयोजन होता था जो कुछ समय से बंद चल रहा है।
गोथिक शैली में निर्मित इस चर्च का निर्माण सन 1810 में किया गया था। वर्तमान काल में इसके अवशेष के मात्र 2-3 फीट हिस्सा देखा जा सकता है। जब भारतीयों ने रेसीडेंसी की घेराबंदी की तो इसको अन्नागार के रूप में परिवर्तित किया गया। इसके चारों ओर एक बड़े से हिस्से में कबरिस्तान है।
सन् 1857 की क्रांति के दौरान इतनी ज्यादा संख्या में सैनिकों की मृत्यु हुई कि इसके आसपास का क्षेत्र कब्रों से भर गया। सभी मृत लोंगो को यही दफनाया गया। आज भी इसमें अनगिनत आत्माएं इस भूमि पर सोई हुई है।
इसके अतिरिक्त मुझे एक एक चीज़ ने आश्चर्यचकित कर दिया, वो था इसके पास स्थित एक बड़े बरगद वृक्ष के नीचे एक छोटा भूमि का हिस्सा जिसके चारों तरफ से घेरा गया था। इस स्थान पर एक साथ 200 ब्रिटिश सैनिकों को दफनाया गया था।
इस इमारत के निर्माण का श्रेय आसफ उद दौला को जाता है जिन्होंने बाद में इस इमारत को सेक्विल मार्क्स टेलर को बेच दिया, जिन्होंने 1802 में पुनः इसको जॉर्ज प्रेंडरगस्ट को बेच दिया। प्रेंडरगस्ट ने यहां यूरोपीय वस्तुओं की एक दुकान स्थापित कि और कारोबार किया। कुछ समय पश्चात उन्होंने भी इस स्थान को जॉन कैलूदन को बेच दिया। ये भी एक बड़े व्यापारी थे।
जॉन कैलूदन की पोती मल्लिका मुखदरा आलिया या विलायती बेगम थी, जिनकी शादी नसीरुद्दीन हैदर से हुई और जब नसीरुद्दीन हैदर की मृत्यु हुई तो मल्लिका मुखदरा आलिया अपनी मां और अष्रफुनिस्सा के साथ यहां रहने लगी। अष्रफुनिस्सा विलायती बेगम की सौतेली बहन थीं। जब इनकी मृत्यु हुई तो अष्रफुनिसा ने यहां एक मस्जिद और इमामबाड़ा बनवाया।
मुझे पहली नजर में इस इमारत ने सोचने पर मजबूत कर दिया कि इस रेसीडेंसी परिसर में जहां सभी इमारतें अंग्रेज़ी लोगों के लिए थी, वहां एक मस्जिद और इमामबाड़े का क्या मतलब?
असल में जब विलायती बेगम की मृत्यु हुई तो उनकी सौतेली बहन अष्रफुनिस्सा ने बेगम कोठी के ठीक बगल में एक इमामबाड़े और मस्जिद का निर्माण करवाया।
ये सम्पूर्ण रेसीडेंसी परिसर में अवध वास्तुकला का इकलौता इमारत है। इमामबाड़ा तो सम्पूर्ण नष्ट हो चुका है पर मस्जिद अभी भी जीवित अवस्था में है। मस्जिद की मीनारों को सुरक्षित रखने के लिए इसके क्षतिग्रस्त हिस्से को लोहे के मजबूत ढांचे में रखा गया है।
मस्जिद को घूमने के बाद मेरी नजर इसके आगे कुछ ध्वस्त ढांचों पर पड़ी जिसने मेरे अंदर इस जगह का पता लगाने की उत्सुकता में वृद्धि की। यहां सभी सैनिकों के लिए भोजन और मनोरंजन के लिए इनडोर खेलों की सुविधा उपलब्ध थी। क्रांति के दौरान इस इमारत को भी निशाना बनाया गया और इसको नष्ट कर दिया गया। अब यह महज कुछ ईंटों का ढांचा मात्र है।
सोगो एक स्कूल शिक्षिका थी और यह स्थान उनका निवास हुआ करता था। यह एक काफी पढ़ी लिखी महिला थी जिनका जिम्मा सभी बच्चों को शिक्षा देना था। इनका घर भी हमले से बच नहीं पाया और 10 अगस्त के दिन के हमले में सोगो का घर नष्ट हो गया।
यह एक ऊंचाई पर स्थित दोमंजिला इमारत थी। कैप्टन एंडरसन की 25वीं बटालियन की एक टुकड़ी इस स्थान की सुरक्षा कर रही थी। 20 जुलाई को स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने लगभग 70-80 यार्ड की दूरी से दिन रात इस इमारत पर हमला किया और अंततः 10 अगस्त को यह पोस्ट भी अंग्रेज़ी सैनिकों को गवाना पड़ा।
आेमने उस वक़्त जुडिशल कमिश्नर थे और एक बहुत ही अच्छी पकड़ वाले व्यक्ति थे। हमले के दौरान इनको यही पर सुरक्षित रखा गया था और सैनिकों द्वारा इस स्थान को संभाला गया पर 5 जुलाई को तोप के एक हमले ने इस स्थान को तहस नहस कर दिया। बाद में ब्रिगेडियर जनरल इंग्लिश ने इस स्थान को अपना मुख्यालय बना लिए।
आज एक अहम पोस्ट था और इंजीनियर्स का मुख्यालय भी था। क्रांति के हमले के समय यह स्थान कैप्टन मैक कैबे द्वारा नेतृत्व वाली 32वीं बटालियन द्वारा मोर्चा संभाला गया। इस स्थान को वर्कशॉप की तरह भी प्रयाग किया गया।
यह दोमंजिला इमारत पोस्ट ऑफिस और एंडरसन पोस्ट के मध्य में स्थित था। यह स्थान कैप्टन जर्मन द्वारा नेतृत्व किया गया था। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों द्वारा आत्मघाती हमले में यह स्थान तहस नहस हो गया और इसका अस्तित्व भी मिट गया।
इसके अलावा कुछ अन्य ध्वस्त इमारतों में डुप्रत हाउस, बैरक, गुब्बिन पोस्ट, बूचड़खाना, जेल आदि थे जो अब मौजूद नहीं हैं।
ध्यान दें कि परिसर के अंदर ट्राइपॉड, मोनोपॉड या किसी भी तरह का कैमरा ले जाना माना है। मोबाइल फोटोग्राफी की अनुमति है। कैमेरा ले जाने के लिए विशेष अनुमति की आवश्यकता होती है।
घूमने का समय –
सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे तक। (हर सोमवार को बंद रहता है)।
नोट – जब हम नवंबर माह के अंतिम सप्ताह में गए तो टिकट लेने के लिए हमें बारकोड स्कैन करके कुछ सामान्य जानकारी भरने के बाद paytm से पेमेंट करके टिकट बुक करना पड़ा, फिर कन्फर्मेशन को काउंटर पर दिखा कर प्रवेश मिला। यह कोविड -19 को देखते हुए किया गया है।
लखनऊ के मुख्य स्टेशन लखनऊ जंक्शन, बादशाहनगर, गोमतीनगर है। सभी स्टेशन देश के सभी हिस्सों से जुड़े हुए है। आप देश के किसी भी कोने से यहां आसानी से पहुंच सकते है। स्टेशन से आप टैक्सी (ओला, उबर, रापिडो) के साथ साथ ऑटो, स्थानीय बस ले सकते है। कुछ मार्गों पर मेट्रो ट्रेन की भी सुविधा है।
चौधरी चरण सिंह अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा ( अमौसी एयरपोर्ट) लखनऊ का एकमात्र हवाईअड्डा है, जो देश के सभी हिस्सों से जुड़ा है। एयरपोर्ट से आप मेट्रो ट्रेन, बस, ऑटो, टैक्सी आदि की सहायता से यहां आसानी से पहुंच सकते हैं।
लखनऊ की दूरी देश की राजधानी दिल्ली से 500 किमी है। राष्ट्रीय राजमार्ग द्वारा यह शहर अन्य शहरों से भलि भांति जुड़ा हुआ है। शहर की किसी भी कोने से ऑटो, कैब, बस और मेट्रो की सहायता से यहां पहुंचा जा सकता हैं।
रेसीडेंसी की घेराबंदी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के शुरुआत का नतीजा था। चूंकि यह परिसर कई ब्रिटिश अफसरों के निवास के साथ ही एक कॉलोनी थी, इसलिए सेनानियों ने इसको सबसे पहले निशाना बनाया। यहां की हर एक इमारत को सही से परखने के बाद मैं स्वयं को इतिहास के उस वक़्त की सोच में ले गया और सभी चीजो को महसूस किया कि उस समय कैसे यह सब हुआ होगा।
सभी के लिए यह स्थान अलग अलग भावनाओं का प्रतीक है। मेरे लिए यह अचंभे, दुःख, सम्मान और गौरव का प्रतीक है। इसकी यात्रा ने 1857 की क्रांति की यादों को ताज़ा किया और एक सोच के सागर में गोता लगाने पर मजबूत कर दिया। मैंने यहां कुल 4 घंटे बिताए।
तो ये थी एक छोटी सी यात्रा एक अहम ऐतिहासिक इमारत की। उम्मीद करता हूं कि यह लेख आपको अच्छा लगा और अगर आप अपनी अगली यात्रा पर इस स्थान का भ्रमण करने का विचार बनाए तो यह लेख आपको कुछ तो मदद पहुंचने में सफल रहे। अगर आप कोई अन्य जनकरी चाहते है या कोई सुझाव या प्रतिक्रिया देना चाहते है थी नीचे टिप्पणी बॉक्स में अपने विचार व्यक्त करें।
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