वह नजाकत, वह अदब कहीं और नहीं मिला,
शहर बहुत मिले पर लखनऊ जैसा नहीं मिला।
यह लेख लखनऊ स्थित बड़ा इमामबाड़ा (भुलभुलैया) के साथ-साथ शाही बावली और आसिफी मस्जिद के बारे में हर छोटी से छोटी जानकारी को साझा करता है, जैसे कि कब जाए, क्या करें, किन बातों का ध्यान रखें आदि।
यात्री किसी भी वर्ग का हो, पर जब बात लखनऊ भ्रमण की आती है, तो सभी के जुबान पर और सूची में भुलभुलैया (बड़ा इमामबाड़ा) का नाम सबसे ऊपर होता है।
और ऐसा होना भी चाहिए, अपनी अद्भुत वास्तुकला और रहस्यमई कलाकृति से यह इमारत देश के साथ-साथ विदेशी पर्यटकों को भी बखूबी आकर्षित करता है।
स्वयं नवाबों के शहर लखनऊ का निवासी होने के कारण न जाने कितनी बार मुझे इस भव्य इमारत का अवलोकन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पर सोचा क्यों न इस बार अपने लेख के माध्यम से हर एक छोटी से छोटी जानकारी को साझा करूं, ताकि अगर आप कभी यहां आएं तो जानकारी के अभाव में कुछ चीजें भूल न जाएं।
बड़ा इमामबाड़ा के बाहरी प्रवेश द्वार के दाहिनी तरफ एक मुगल और राजपूत वास्तुकला में निर्मित एक इमारत दिखती है। यह ईमारत नौबतखाना है। पहले जब नवाबों की हुकूमत हुआ करती थी, तब उनके या किसी खास मेहमान के प्रवेश करने पर यहां खड़े द्वारपाल ढोल बजाकर उनके आने का ढिंढोरा पीटते थे।
दाहिनी ओर स्थित प्रवेश द्वार से घुसने के लिए तीन दरवाज़े है लेकिन वर्तमान में एक ही (बीच वाला) क्रियाशील है। ऊपरी भाग के चारों कोनों पर निर्मित छतरियां और क्रमबद्ध रूप से बने छोटे-छोटे गुम्बद मनमोहक प्रस्तुति देते हैं।
राजस्थानी कला में बने चार छोटे झरोखे भी है जो बड़े ही प्यारे लगते है। सामने बना बगीचा जिसमे घास और तरह-तरह के पौधे लगे है, आपको आकर्षित करते हैं। वहां से मात्र कुछ कदम बढ़ाने के पश्चात आपको एक भव्य प्रवेश द्वार दिखाई देता है।
जब मैं पहली बार यहाँ आया था, तो इस द्वार को देखकर मेरा मुंह अचंभे से खुला का खुला रह गया था। द्वार पार करने के लिए आपको कुछ सीढियां चढ़ना पड़ता है, और हां यहीं पर बाईं ओर स्थित है टिकट खिड़की। सीढ़ियां चढ़ते समय हर कदम पर रखे गमलों को जरूर निहारें।
क्या आपने प्रथम द्वार और मुख्य द्वार के ऊपर उकेरी गई मछलियों की आकृतियों को देखा? यह नवाबों की निशानी थी, और आपको जानकर हैरानी होगी कि आज यह उत्तर प्रदेश सरकार की आधिकारिक निशानी है।
अगर आप पहली बार आ रहे हैं तो यहीं टिकट खिड़की पर आप चाहे तो आधिकारिक टूर गाइड ले सकते है, जो आपकी यात्रा को और ज्यादा अनुभवी बना देगा। इस स्थान से आपको बड़ा इमामबाड़ा की मुख्य इमारत दिखाई देगी।
जैसे ही आप दूसरे प्रवेश द्वार से प्रवेश करते हैं, आपको कई चीजें दिखाई देंगी।
सामने की ओर बड़ा इमामबाड़ा और भूल भुलैया की मुख्य इमारत, दाईं ओर आसिफी मस्जिद और बाईं ओर शाही बावली।
इसको दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी मस्जिद का तमगा हासिल है। आसिफी मस्जिद में गैर मुस्लिम समुदाय के लोगों का प्रवेश वर्जित है, अतः मैं अंदर नहीं जा पाया। मुख्य रूप से यहां नमाज अदा किया जाता है, और इसी वजह से इमामबाड़ा हर शुक्रवार को दोपहर तक बंद रहता है।
आप इस चित्र से इसकी भव्यता का अंदाजा लगा सकते हैं।
बड़ा इमामबाड़ा एक रोचक तीनमंजीला भवन है। इसमें प्रवेश करने के लिए आपको कुछ सीढियां चढ़नी पड़ती हैं। आसफ उद दौला यहां पर अपना दरबार भी लगाते थे।
मैंने एक गाइड को यह बताते हुए सुना कि बड़ा इमामबाड़ा और मस्जिद में प्रवेश के लिए यहां से आप जो सीढियां चढ़ते है, वो कुल गिनती में 19 है। जो शायद मुस्लिम समुदाय में किसी शुभ स्थान में प्रवेश का होता है या कोई शुभ कार्य प्रारंभ करने के दौरान बिस्मिल्लाह बोला जाता है।
दाहिनी ओर डेस्क पर आपको अपने जूतों को जमा करना होता है, उसके बाद ही आप अंदर जा सकते हैं। यहां हुसैनाबाद ट्रस्ट द्वारा तैनात किए गए गाइड आपको जबरदस्ती जानकारी देने का प्रयत्न कर सकते है। अतः आप सतर्क रहे, अगर आपको लगता है कि आपको गाइड लेना चाहिए, तभी लें। वैसे ये गाइड एक साथ कई लोगों को ले जाते है, तो आपको परेशानी का सामना करना पड़ सकता है।
घुसते ही आप पहले दाईं तरह जाइयें, जहां आपका सरोकार एक ऊंचे तख्त से होता है, जो नवाब आसफ उद दौला का तख्त है, वो इसपर विराजमान हुआ करते थे। पूरे इमारत में कुल तीन कक्ष है, जिसमे एक मुख्य हॉल है और उसके दोनों तरफ दो अन्य हॉल है।
मुख्य हॉल को पारसी हॉल, बाईं तरफ के हॉल को चीनी हॉल और दाईं ओर के हॉल को खरबूजा हॉल बोला जाता है। चीनी हॉल में कुछ ताज़िए रखे देखे जा सकते हैं। खरबूजा हॉल में कोई ताजिया नहीं है।
इसके बारे में एक रोचक तथ्य यह है कि इसकी छत खरबूजे के आकार का है। वैसे इसके पीछे एक कहावत प्रचलित है कि निर्माण के समय इस जगह एक बूढ़ी औरत खरबूजे बेचा करती थी। उसके आग्रह पर नवाब आसफ उद दौला ने यह हिस्सा उसको समर्पित कर दिया।
अब बात करते है मुख्य हॉल यानी पारसी हॉल की, जो दिखने में किसी ट्रे (प्लेट) की तरह प्रतीत होता है। इसकी लंबाई 50 मीटर और चौड़ाई 14 मीटर है। सबसे आश्चर्य की बात यह है कि इतनी बड़ी छत बिना किसी बीम (स्तंभ) के बना है जो आज तक जीवित अवस्था में है।
एक अन्य बात और यह है कि इसके निर्माण में किसी प्रकार की लकड़ी या लोहे के प्रयोग के बजाय दाल, चूनापत्थर आदि का उपयोग लाखौरी ईंटों के साथ किया गया है।
तीनों हॉल हल्के हरे और सफेद रंग के मिश्रण से युक्त हैं और ऊपर की छत पर आपको कुछ शीशे के लैंप देखने को मिलते है। राजपूत वास्तुकला में बाहर की ओर निकले हुए झरोखे इस खूबसूरती को बढ़ाने में सक्षम हैं।
पारसी हॉल के बीचोबीच दो कब्रें है, जो इस सम्पूर्ण परिसर के वास्तु शिल्पकार किफायतुल्लाह और नवाब आसफ उद दौला की हैं। किफायतुल्लह कि मंशा थी कि आखिर उसकी जगह इस इमारत में कहां है, जिसके फलस्वरूप नवाब ने अपने बगल में ही उसकी कब्र भी बनवाई।
आप यहां पर संगठित की हुई चित्रकला के साथ-साथ कुछ ताज़िए भी रखे देख सकते है, जिनका संबंध मुहर्रम से है। आसफ उद दौला इसको अपने दरबार के रूप में प्रयोग करते थे और लोगों की समस्यायों को सुनते थे।
अब हम लेख के उस भाग पर आ गए हैं, जिसका इंतजार आपको बेसब्री से है! विश्व प्रसिद्ध भुलभुलैया! वास्तव में भुलभुलैया, बड़ा इमामबाड़ा का ही हिस्सा और विस्तार है। ध्यान रहे नए नियमों के अनुसार अगर आप पहली बार भूलभलैया जा रहे हैं तो सलाह दी जाती है कि आप अपने साथ एक गाइड अवश्य ले जाएं।
वैसे इसके रास्ते हर जगह समान प्रतीत होते हैं जिससे आपको लगता है कि आप जहां थें, फिर वापस वही आ गए हैं। और अगर पहली बार जा रहे हैं तो मैं शर्त लगा सकता हूं कि आप इसमें पूरी तरह से खो जायेंगे। खैर मुझे इसके हर रास्ते से वाकिफ हूं।
टूर गाइड आपको हर एक कोने से गुजरने के साथ सुरंगे भी दिखाता है।और जब आप रास्तों से होते हुए इसकी छत पर आते हैं ना, तो आपको यकीनन सामने प्रस्तुत किए गए नजारों से खुद को बचा नहीं सकते हैं।
सामने की ओर बने झरोखों से आप दोनों प्रवेश द्वार के साथ-साथ रूमी दरवाजा, गोमती नदी और क्लॉक टॉवर को निहार सकते हैं जो वास्तव में एक आनंद और सुकून की अनुभूति प्रदान करता है। आप स्वयं ऊपर के चित्र में देखिए:
आपको बिल्कुल भी आश्चर्यचकित नही होना चाहिए अगर मैं कहूं कि शाही बावली सम्पूर्ण इमामबाड़ा परिसर में निर्मित पहली इमारत थी। वैसे भी निर्माण कार्य के लिए सबसे आवश्यक सामग्री जल होता है।
इसलिए इसका निर्माण (खुदाई) किया गया। यह गोमती नदी से जुड़ा हुआ है, और जब भी नदी में जलस्तर बढ़ता है तो उसका असर यहां भी देखने को मिलता है। खैर अब यह बावली पूरी तरह से सूख चुकी है।
बावली, बावड़ी या स्टेपवेल सब एक ही है जिसका मुख्य कार्य जल का संग्रहण करना होता है।
इसका एक हिस्सा ऐसा भी है जहां से अंदर वाला व्यक्ति बाहर वाले को आसानी से देख सकता है। किंतु बाहरवाले को अंदरवाले की भनक तक नहीं लगती। शायद यह नवाब की अपनी सुरक्षा हेतु मददगार साबित होती होगी।
अंदर कुछ कक्ष और हॉल है, जो उस समय लोगों को तपती गर्मी से बचाने और आराम करने हेतु बनवाए गए थे। वास्तव में अंदर का तापमान बाहर के तापमान की तुलना में कम था।
इस बावली के अंदर एक खिड़की ऐसी भी है जहां से आप अंदर आने वाले व्यक्ति की परछाई साफ नीचे जल में देख सकते हैं। क्यों हैं ना यह एक सीसीटीवी कैमरे की तरह।
एक रहस्यमई बात यह भी प्रचलित है कि एक अंग्रेज अफसर की नीयत नवाब के खजाने पर थी, जिसके फलस्वरूप नवाब ने खजाने को सुरंगों में छिपाकर उसकी चाबी और उससे संबंधित लेखों और नक्शों को इसी में प्रवाहित करवा दिया।
“जाने के तो एक हजार रास्ते हैं,पर वापस आने का मात्र एक।”
भुलभुलैया के बारे में यह कहावत बहुत प्रचलित है। जाने को आप कईं रास्तों से जा सकते हैं, पर वापस वहीं से आना होता है, जहाँ से गए थे।
वैसे आपने सुना है न कि “दीवारों के भी कान होते हैं।”
शायद यह इस जगह सही बैठता है, क्योंकि कुछ खोखली दीवारों से आवाज आरपार और दूसरे हिस्से तक सुनाई देती है। साथ ही अगर एक जगह माचिस की तीली जलाई जाती है तो पूरे हॉल में उसकी आवाज गूंजती है।
यह भी कहा जाता है कि इसमें कई सुरंगे है, जो दिल्ली के लाल किले, आगरा के ताजमहल के आसपास और फैजाबाद के साथ-साथ उत्तर प्रदेश के अन्य भागों पर निकलती हैं। यह भी लोगों द्वारा कहा जाता है कि नवाबों ने अपना सारा खजाना इन्ही सुरंगों में छुपा कर रखा था।
कई बार अंग्रेजी हुकूमत ने इसको प्राप्त करने की कोशिश की, पर हर बार विफल रहे। और तो और सुरंग में जाने वाले सिपाही तक वापस नहीं लौटे। उसके बाद इन सुरंगों को सरकार के आदेशानुसार बंद करवा दिया गया।
मैंने किसी को यह कहते हुए सुना कि इसमें दलदल था, मगरमच्छ रहते थे, जो जाने वालों को निगल लेते थे। खैर क्या यह दलीलें सही है या गलत, हमें नहीं पता। पर इनको सुनने में जो रोमांच आता है ना उसकी अनुभूति ही अलग होती है। इससे आपका भ्रमण और भी बेहतरीन हो जाता है।
सन् 1784 के समय अवध प्रांत को अकाल से गुजरना पड़ा और यह हालात लगभग कई वर्षों तक बना रहा। उस समय के नवाब आसफ उद दौला को अपने प्रजा का यह हश्र देखा ना गया। लोग भुखमरी मरने लगे।
उनका हृदय उन्हें अंदर से कचोट रहा था और अंततः उन्होंने इस भव्य निर्माण कार्य के आरंभ करने का निर्णय लिया। उनका मकसद इतना मात्र था कि उनकी प्रजा को कुछ कार्य मिल सके और उनको दो वक्त की रोटी नसीब हो पाए।
लगभग 20000 लोगों को बड़े इमामनाड़े के निर्माण से रोजगार मिला। जानकारी के लिए बता दूं कि पास स्थित रूमी दरवाजा भी इसी समय बनवाया गया था। सन् 1786-1791 तक इसका निर्माण कार्य चला। बिना किसी नक्शे के इसका निर्माण कार्य शुरू हुआ। कहा जाता है कि स्तंभ बनते थे और टूटते थे और फिर बनते थे।
फिर वास्तुकार किफायतुल्लाह के नक्शे कदम पर चलकर इसके निर्माण का समापन हो सका। और यही कारण है कि उस समय लोग कहते थे: “जिसको ना दे मौला, उसको दे आसफ उद दौला।”
अगर वास्तुकला के नजरिए से इसको देखा जाए तो यह राजपूत और मुगल वास्तुकला के मिश्रण का नतीजा है। सम्पूर्ण निर्माण कार्य में लाखौरी ईंटों का उपयोग किया गया है। वस्तुतः लखनऊ के सभी इमारतों के निर्माण में इन्ही ईंटों का उपयोग किया गया है।
इमामबाड़ा – का सामान्य अर्थ है वह पवित्र स्थान या भवन जो विशेष रूप से हज़रत अली (हज़रत मुहम्मद के दामाद) तथा उनके बेटों, हसन और हुसैन, के स्मारक के रूप में बनाया जाता है। इमामबाड़ों में शिया संप्रदाय के मुसलमानों की मजलिसें और अन्य धार्मिक समारोह होते हैं।
‘इमाम’ मुसलमानों के धार्मिक नेता को कहते हैं। मुस्लिम जनसाधारण का पथप्रदर्शन करना, मस्जिद में सामूहिक नमाज़ का अग्रणी होना, खुत्बा पढ़ना, धार्मिक नियमों के सिद्धांतों की अस्पष्ट समस्याओं को सुलझाना, व्यवस्था देना इत्यादि इमाम के कर्त्तव्य हैं।
इस्लाम के दो मुख्य संप्रदायों में से ‘शिया’ के सम्मानित इमाम हज़रत मुहम्मद के बाद इमाम उनके दोनों बेटे हुए। वे विरोधी दल से अपने जन्मसिद्ध अधिकारों के लिए युद्ध करते हुए बलिदान हुए थे।
उनकी याद में शिया सम्प्रदाय के लोग हर वर्ष मुहर्रम के महीने में उनके घोड़े ‘दुलदुल’ (एक विशेष घोड़े) की पूजा करके उन नेताओं को याद करके बड़ा शोक मनाते हैं। उनके प्रतीकस्वरूप ताजिए बनाकर उनका जुलूस निकालते हैं। ये ताजिए या तो कर्बला में दफ़ना दिए जाते हैं या इमामबाड़ों में रख दिए जाते हैं। इसी अवसर पर इमामबाड़ों में उन शहीदों की स्मृति में मातम मनाया जाता हैं।
भारतीय पर्यटक | ₹ 40 |
भारतीय पर्यटक (संयुक्त टिकट) | ₹60 |
विदेशी पर्यटक (संयुक्त टिकट) | ₹500 |
टूर गाइड दर | ₹100 (1-2 लोगों के लिए) |
खुलने का समय | सूर्योदय से सूर्यास्त (प्रातः 6 से सायं 5 बजे। |
खुलने का दिन | सोमवार को छोड़कर सप्ताह के सभी दिन। (नमाज के कारण शुक्रवार को दोपहर के बाद खुलता है।) |
नोट: यह टिकट दर मार्च 2021 का है। प्रशासन द्वारा समय समय पर इसको बदला जा सकता है।
सन् 1784 में पड़े अकाल की वजह से राज्य में भुखमरी की समस्या बढ़ने लगी। लोगों को रोजगार और आर्थिक सहायता हेतु नवाब आसफ उद दौला ने इमामबाड़ा परिसर का निर्माण करवाया।
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में विश्व प्रसिद्ध भुलभुलैया स्थित है।
इमामबाड़े वो भवन होते हैं जिसमें शिया संप्रदाय के मुसलमानों की मजलिसें और अन्य धार्मिक समारोह होते हैं। एक इमामबाड़ा, मस्जिद से अलग होता है।
भुलभुलैया, बड़े इमामबाड़े का ही एक हिस्सा है, जो नवाब आसफ उद दौला द्वारा अवध प्रांत में पड़े अकाल से लोगो की मदद कारण हेतु बनवाया गया था।
इमामबाड़े का निर्माण मुस्लिम समुदाय के लोगों के लिए बनवाया गया था, पर आसफ उद दौला यहां पर अपना दरबार भी लगाते थे। इस समय वही यहां के करता धरता थे।
अगर आप तहज़ीब और नज़ाकत से इत्तेफ़ाक़ रखते हैं,
तो बेशक मुस्कुराइए ज़नाब आप लखनऊ में हैं।
लखनऊ शहर में बड़े इमामबाड़े के अलावा छोटा इमामबाड़ा, शाहनजफ इमामबाड़ा, सिबतैनाबाद इमामबाड़ा, काला इमामबाड़ा आदि भी है, पर लोगों के जुबान पर बड़े इमामबाड़े का ही नाम होता है। वजह सिर्फ एक (भुलभुलैया)।
आप भी जब कभी नवाबों के शहर लखनऊ आएं तो इस अदभुत कलाकृति का नमूना का अवलोकन अवश्य करें। पूरा परिसर घूमने में लगभग एक से दो घंटों का समय लग सकता है, तो आप उसके हिसाब से खुद को तैयार करके आएं।
तो यह थी लखनऊ स्थित बड़े इमामबाड़े की एक ट्रैवल गाइड और मेरा अनुभव। उम्मीद करता जी यह आपके कुछ काम अवश्य आय। बाकी अगर आपने मन में कोई सवाल उठ रहा है या कोई सुझाव है तो बेझिझक नीचे टिप्पणी बॉक्स में पूछें। हम आपको जवाब देने का प्रयास करेंगे और साथ ही हमारे लेख को और बेहतर बनाने को तत्पर रहेंगे।
एक अपील: कृपया कूड़े को इधर-उधर न फेंके। डस्टबिन का उपयोग करें और यदि आपको डस्टबिन नहीं मिल रहा है, तो कचरे को अपने साथ ले जाएं और जहां कूड़ेदान दिखाई दे, वहां फेंक दें। आपकी छोटी सी पहल भारत को स्वच्छ और हरा-भरा बना सकता है।
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